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दिल्ली

एलजी को यमुना की उच्च स्तरीय कमेटी का चेयरमैन बनाना संवैधानिक व्यवस्था और संविधान पीठ के आदेश की अवहेलना, चुनौती


अजीत सिन्हा की रिपोर्ट
नई दिल्ली:दिल्ली सरकार ने उपराज्यपाल (एलजी) को यमुना पर बनी उच्च-स्तरीय समिति का बतौर अध्यक्ष नियुक्त करने के नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। दिल्ली सरकार ने एनजीटी के आदेश को रद्द करने का अनुरोध करते हुए कहा है कि यह आदेश दिल्ली में शासन की संवैधानिक व्यवस्था के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 2018 और 2023 के आदेशों का भी उल्लंघन करता है। 09 जनवरी 2023 के अपने आदेश के जरिए एनजीटी ने यमुना नदी प्रदूषण के मुद्दे को हल करने के लिए दिल्ली में विभिन्न अथॉरिटीज वाली इस कमेटी का गठन करते हुए एलजी को इसका अध्यक्ष बनाया है।  जबकि एलजी दिल्ली के मात्र औपचारिक प्रमुख भर हैं। 

इस कमेटी में दिल्ली के मुख्य सचिव, दिल्ली सरकार के सिंचाई, वन एवं पर्यावरण, कृषि और वित्त विभागों के सचिव, दिल्ली जल बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष, केंद्रीय कृषि मंत्रालय, वन महानिदेशक या पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) से उनके नामिती, जल शक्ति मंत्रालय (एमओजेएस) या एमओईएफ और सीसी के एक प्रतिनिधि, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के महानिदेशक और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अध्यक्ष और दिल्ली सरकार के एक प्रतिनिधि शामिल हैं।याचिका में कहा गया है कि दिल्ली सरकार यमुना के प्रदूषण को दूर करने और उपचारात्मक उपायों को लागू करने के लिए अंतर-विभागीय समन्वय की आवश्यकता को स्वीकार करती है, लेकिन एनजीटी के आदेश के जरिए एलजी को दी गई कार्यकारी शक्तियों पर कड़ी आपत्ति जताती है। एलजी को दी गई शक्तियां विशेष रूप से दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकार क्षेत्रों पर अतिक्रमण करती हैं।दिल्ली सरकार ने तर्क दिया कि दिल्ली में प्रशासनिक ढांचे और संविधान के अनुच्छेद 239 एए के प्रावधानों के अनुसार भूमि, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस से संबंधित मामलों को छोड़कर एलजी नाममात्र के प्रमुख के रूप में कार्य करते हैं और वे संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हैं। दिल्ली सरकार ने एक समन्वित दृष्टिकोण के महत्व देते हुए इस बात पर जोर दिया है कि एनजीटी के आदेश में इस्तेमाल की गई भाषा निर्वाचित सरकार को दरकिनार करती है। दलील दी गई है कि एक ऐसे प्राधिकरण को कार्यकारी शक्तियां प्रदान की गई हैं, जिनके पास उन शक्तियों को रखने का संवैधानिक अधिकार का अभाव है और यह चुनी हुई सरकार के अधिकार क्षेत्र को भी कमजोर करता है। याचिका में यह दलील दी गई है कि एक ऐसा प्रशासनिक व्यक्ति जिसके पास संवैधानिक जनादेश नहीं है उसे कार्यकारी शक्तियां देना, असल में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के अधिकार क्षेत्र को कमजोर करता है। संविधान के अनुच्छेद 239AA के अनुसार, उपराज्यपाल पूरी तरह से मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के आधार पर कार्य करने के लिए बाध्य है। यह संवैधानिक सिद्धांत पिछले 50 वर्षों से रहा है कि राज्य के एक नामांकित और अनिर्वाचित प्रमुख में पास मौजूद शक्तियों का प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद की “सहायता और सलाह” के तहत ही किया जाना चाहिए।दिल्ली सरकार ने इस बात पर भी जोर दिया कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने राज्य (एनसीटी ऑफ दिल्ली) बनाम भारत संघ (2018) 8 एससीसी 501 के मामले में अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि दिल्ली की निर्वाचित सरकार के पास भूमि,पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था को छोड़कर राज्य और समवर्ती सूची में शामिल सभी विषयों पर कार्यकारी शक्तियों का विशेष अधिकार है। 4 जुलाई, 2018 को जारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैरा 284.17 में कहा गया है कि अनुच्छेद 239-एए (4) में लिखे हुए “सहायता और सलाह” का अर्थ यह माना जाना चाहिए कि एनसीटी के एलजी दिल्ली के मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य हैं। यह स्थिति तब तक के लिए सही है जब तक उपराज्यपाल अनुच्छेद 239-एए के खंड (4) के प्रावधान के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करते हैं। उपराज्यपाल को किसी भी विषय पर  स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं सौंपी गई है। उन्हें या तो मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना होता है या वह उनके द्वारा राष्ट्रपति को दिए जा रहे संदर्भ पर लिए गए निर्णय को लागू करने के लिए बाध्य हैं।इसी फैसले के 475.20 में कहा गया है कि सरकार के कैबिनेट रूप में निर्णय लेने की मूल शक्ति मंत्रिपरिषद के पास है, जिसके मुखिया मुख्यमंत्री होते हैं। अनुच्छेद 239-एए (4) के मूल 38 भाग में दिया गया सहायता और सलाह का प्रावधान इस सिद्धांत को मान्यता देता है। जब उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के आधार पर कार्य करता है, तो यह मानता है कि सरकार के लोकतांत्रिक रूप में वास्तविक निर्णय लेने का अधिकार कार्यपालिका में निहित है। यहां तक कि जब उपराज्यपाल प्रावधान के तहत जब राष्ट्रपति को संदर्भ देते हैं, तब भी राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णय का पालन करना होता है, उपराज्यपाल के पास निर्णय लेने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है। 
इसके अलावा, पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 2017 की सिविल अपील 2357 (सेवा निर्णय) में 11 मई 2023 के अपने आदेश में इस स्थिति को बरकरार रखा है। इसके आलोक में अनुच्छेद 239एए और 2018 के सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले में दोहराया गया है कि एलजी दिल्ली के विधायी दायरे में आने वाले मामलों में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से काम करने के लिए बाध्य हैं। अपनी अपील में दिल्ली सरकार ने तर्क दिया है कि एनजीटी के प्रस्तावित उपचारात्मक उपाय जैसे कि कृषि, बागवानी या औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उपचारित जल का उपयोग करना, अपशिष्ट निर्वहन और डंपिंग को रोकना, बाढ़ के मैदान क्षेत्रों की रक्षा करना, ड्रेजिंग प्रवाह को बनाए रखना, वृक्षारोपण करना और नालियों की डीसिल्टिंग करने आदि के लिए बजट आवंटन की आवश्यकता होती है जिसे विधानसभा द्वारा अनुमोदित किया जाता है। इसलिए इन उपायों की देखरेख में निर्वाचित सरकार की भूमिका जरूरी है। साथ ही कहा गया है कि चुनी हुई सरकार यमुना को प्रदूषण मुक्त कर स्वच्छ नदी बनाने और उसके लिए जरूरी धन आवंटित करने के लिए प्रतिबद्ध है। जबकि एनजीटी के आदेश में उल्लिखित वर्तमान योजना दिल्ली की निर्वाचित और जवाबदेह सरकार को दरकिनार करते हुए एक अनिर्वाचित व्यक्ति के नेतृत्व में कमेटी गठित करता है। हालांकि इसके समन्वय के लिए एक अंतर- एजेंसी कमेटी की जरूरत है। इसलिए इसकी देखरेख चुनी हुई सरकार के प्रमुख यानी मुख्यमंत्री द्वारा की जानी चाहिए।अंत में दिल्ली सरकार ने शीर्ष अदालत से 2023 के मूल आवेदन संख्या 21 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की मुख्य बेंच द्वारा 09 मई 2023 के पारित अंतिम आदेश को रद्द करने का अनुरोध किया है।

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